मशीनों से घिरा इंसान: सुविधा में फंसी संवेदना
🛠️ मशीनों से घिरा इंसान: सुविधा में फंसी संवेदना
"जिस दुनिया को हमने आसान बनाने के लिए मशीनें बनाई थीं, आज वही हमें जटिल बना रही है..."
एक समय था जब इंसान खेतों में हल चलाता था, चिट्ठियों का इंतज़ार करता था, और बात करने के लिए पास जाकर बैठता था। तब समय धीमा था लेकिन जीवन सजीव था। आज हर घर, हर हाथ, हर आँख के सामने एक स्क्रीन है — मोबाइल, टीवी, लैपटॉप या स्मार्टवॉच। हम एक ऐसे युग में जी रहे हैं जहाँ इंसान चारों ओर मशीनों से घिरा है, लेकिन अपने भीतर से अकेला होता जा रहा है।
🤖 सुविधा या स्वाभाविकता का ह्रास?
हम मशीनों से काम ले रहे हैं, लेकिन वे हमारे सोचने, चलने, महसूस करने और मिलने की आदतें खत्म कर रही हैं।
जहाँ पहले घर के सारे सदस्य एक साथ खाना खाते थे, आज हर किसी के हाथ में एक मोबाइल है।बच्चों के हाथ में खिलौनों की जगह टैबलेट और बुजुर्गों की बातों की जगह सोशल मीडिया है।
बातचीत की जगह चेटिंग ने ले ली।
कहानियों की जगह YouTube वीडियो ने।
सपनों की जगह स्क्रीनशॉट्स ने।
और समय की जगह टाइमपास ने।
🔄 मशीनों का बढ़ता दखल:
किताबों से स्मार्टफोन, AI टूल्स
खेल मैदान में मोबाइल गेम्स
खरीदारी बाजार जाकर ऑनलाइन ऐप्स
मित्रता मेल-जोल से इंस्टा-फॉलो से
संवाद आमने-सामने व्हाट्सऐप इमोजी से
🧠 नुकसान केवल शारीरिक नहीं, मानसिक भी
तनाव, अकेलापन और डिप्रेशन बढ़ रहा है।
रिश्तों में गहराई की जगह ऊपरी संपर्क रह गया है।
इंसान सोचने के बजाय सर्च करने में व्यस्त है।
🕊️ अब क्या किया जाए?
तकनीक को सेवक की तरह रखें, मालिक न बनने दें।रोज कुछ समय बिना स्क्रीन बिताएं – परिवार के साथ, खुद के साथ।बच्चों को मशीनों से नहीं, मानव मूल्यों से जोड़ें।हर दिन कम से कम एक बार किसी से आंख में आंख डालकर बात करें।
मशीनें ज़रूरी हैं, लेकिन इंसानियत उससे कहीं ज़्यादा।
हमने मशीनों को बनाया, अब ज़रूरत है खुद को भुलाने से बचाने की।
"चलो एक दिन मशीनों को आराम दें,
फिर से इंसानों जैसे जीने का प्रयास करें…"
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